बरेली का वह मशहूर मांझा जिसका जिक्र करते हुए मोदी बोले – इसके बिना गुजरात की पतंग में भी दम नहीं

Rajni Bishnoi

0
879

तंग गलियां और भीड़भाड़। इन गलियों में सजी रंग-बिरंगी दुकानों से पतंग, मांझा, सद्दी, चौआ, चरखी जैसे शब्द बार-बार ऐसे सुनाई देते हैं कि लगता है कि पतंगबाजी की अपनी एक मुकम्मल जुबान है। दुकानदार खरीदारों से अपने मांझे की खूबी ऐसे बताते हैं कि पतंग के पेंच लड़ने का नजारा आंखों के सामने उतर आए। ऐसा हो भी क्यों न, हम बरेली शहर के बाकरगंज के उस पतंग बाजार में हैं, जहां का मांझा पूरे देश के पतंगबाजों में मशहूर है। इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 2014 में बरेली में एक चुनावी रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यहां के मांझे के बिना गुजरात की पतंग में भी दम नहीं है। तो इस मकर संक्रांति पर हम आपको बरेली के मांझे का किस्सा बता रहे हैं।

नवाबों और शाही खानदानों की मांग पर वजूद में आया
हबीब मियां अब बुजुर्ग हो चुके हैं, लेकिन अपने जमाने में मांझा बनाने के बड़े उस्तादों में शुमार थे। मांझे की बात शुरू करते ही उनकी बूढ़ी आंखों में चमक आ जाती है। बरेली में यह काम कैसे शुरू हुआ? इस सवाल पर हबीब मियां बताते हैं, ‘इसका कोई ठीक-ठीक हिसाब नहीं है। यह काम अंग्रेजी राज में नवाबों के दौर से शुरू हुआ। लखनऊ-बरेली के शाही खानदान से जुड़े लोग पतंगबाजी के शौकीन हुआ करते थे। उस समय पतंग सूती धागे से ही उड़ाई जाती थी। धीरे-धीरे पतंगबाजों ने पेंच लड़ाना और एक दूसरे की पतंग काटना शुरू किया। पतंग काटने की बाजी लगने लगी। सूती धागे से पतंग कटती नहीं थी। इसके लिए ऐसा धागा चाहिए था, जिसमें थोड़ी धार हो। फिर इसे बनाने की कोशिश शुरू हुई। धीरे-धीरे ऐसा धागा वजूद में आया, जिसे आज मांझा कहा जाता है।’

कारोबार बढ़ा, तो धंधे ने पुश्तैनी रूप ले लिया
हबीब मियां बताते हैं, ‘लखनऊ-बरेली और आसपास पतंग उड़ाने वाले धागे का काम होता था और शहर भी पतंगबाजी के शौकीनों का था। ऐसे में यहां मांझे का काम भी शुरू हो गया।’ हबीब मियां गर्व के साथ बताते हैं कि उनके उस्ताद अली मोहम्मद ने मांझा बनाने का तरीका सबसे पहले सीखा। बरेली में मांझा बनाने की कारीगीरी उन्हीं से फैली। नवाबों के दौर में कुछ मुस्लिम परिवार इस काम को करते थे। धीरे-धीरे पतंगबाजी नवाबों और शाही खानदानों से बाहर निकलकर आम लोगों का भी शौक बन गई। फिर मांझा-पतंग की मांग भी बढ़ने लगी। कारोबार बढ़ा, तो मांझे के काम ने पुश्तैनी रूप ले लिया। मौजूदा दौर में बरेली के बाकरगंज, सराय खाम में यह काम सबसे ज्यादा होता है। इनके बनाए मांझे की उत्तर भारत के अलावा पतंगबाजी के लिए मशहूर गुजरात, राजस्थान में भी खूब मांग है। आज करीब 25 हजार मुस्लिम परिवार मांझे के काम से जुड़े हैं।

कैसे बनता है मांझा
बरेली के कल्लू शाह के तकिये, बाकरगंज या सराख खाम में कारीगरों ने बांस के दो सिरे बनाकर उनके बीच धागे खींच रखे हैं। इस धागे पर एक खास तरह का लेप चढ़ाया जाता है। इस लेप को बनाने का तरीका भी दिलचस्प है। इसके लिए बाजार से कांच खरीदा जाता है। फिर इस कांच को चक्की या इमामदस्ते में बहुत बारीक पीसा जाता है। बारीक पिसे कांच में चावल का मांड, सेलखड़ी (छुई) पाउडर, रंग मिलाया जाता है। इन सबको मिलाकर आटे के तरह गूंथा जाता है। अब इस मिश्रण को सूती धागों पर चढ़ाना होता है। धागे पर मिश्रण को चढ़ाने के दौरान कारीगर अंगुलियों की हिफाजत के लिए उस पर धागा लपेटते हैं। धागों पर चढ़ा यह मिश्रण जब सूख जाता है तो इसे खास तरीके से घिसा जाता है। इस पूरी प्रोसेस को कारीगर अपनी भाषा में मांझा सूतना कहते हैं। मांझा सूतने के दौरान कारीगरों को लगातार फैले हुए धागों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाना पड़ता है। कहते हैं कि एक चरखी तैयार करने में कारीगर कम से 5 से 6 किमी पैदल चल लेता है।

मांझे का सालाना कारोबार 50 करोड़ का था, कोरोना ने आधा कर दिया
ऑल यूपी सूती धागा-मांझा मजदूर वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष सरताज बताते हैं कि मकर संक्रांति और 15 अगस्त जैसे मौकों पर मांझे की सबसे ज्यादा मांग होती है। उनके मुताबिक, सामान्य दिनों में बरेली के मांझे का कारोबार हर साल 50 करोड़ के आसपास रहता था, लेकिन कोरोना के चलते इस साल यह आधे से कम पर आ गया है। इस काम में जितनी मेहनत है, बाजार में उतनी कीमत नहीं मिलती। मांझे के व्यापारी मोहम्मद आसिफ कहते हैं कि बरेली का मांझा मशहूर है, लेकिन धीरे-धीरे इस काम को करने वाले लोग कम हो रहे हैं। वे बताते हैं कि एक कारीगर एक दिन में 900 मीटर की एक चरखी तैयार कर पाता है। जिसके लिए उसे 350-400 रुपये मिलते हैं। ऐसे में कम कमाई के चलते नई पीढ़ी के लोग दूसरे काम पकड़ रहे हैं।