- राजनीति की एक खासियत यह भी होती है कि वह किसी को उसके रसूख का स्थायी प्रमाणपत्र नहीं देती
- सियासी जिंदगी में कई बार ऐसे मौके आते हैं, जब खुद को साबित करना होता है, पंजाब में दिख रही ऐसी तस्वीर
- प्रदेश की सियासत की धड़कन को नजदीक से सुनने वाले कैप्टन के लिए भी खुद को साबित करने की घड़ी आ गई
राजनीति की एक खासियत यह भी होती है कि वह किसी को उसके रसूख का स्थायी प्रमाणपत्र नहीं देती। सियासी जिंदगी में कई बार ऐसे मौके आते हैं, जब खुद को साबित करना होता है। दो बार के मुख्यमंत्री रहे और करीब चार दशक से पंजाब की सियासत की धड़कन को बहुत नजदीक से सुनने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए भी खुद को साबित करने की घड़ी आ गई है।
उनके सामने एक विकल्प यह था कि आलाकमान के हुक्म पर वह मुख्यमंत्री का पद छोड़कर अपने लिए अगले आदेश की प्रतीक्षा करते और इस दौरान खामोशी से अपने लिए नए रास्ते भी तलाश कर सकते थे। हालांकि पद छोड़ते ही उन्होंने जिस तरह ‘रिऐक्ट’ किया, उसके बाद उनके सामने पंजाब में अपनी ताकत दिखाने की चुनौती भी आ खड़ी हुई है।
ताकत बढ़ी तो कांग्रेस से ही
कैप्टन अमरिंदर सिंह राजसी परिवार से आते हैं, सैन्य अधिकारी भी रहे हैं लेकिन राजनीति में उनका जो रसूख बढ़ा, वह वाया कांग्रेस ही बढ़ा। राजीव गांधी की मित्रता के जरिए उनकी कांग्रेस में एंट्री हुई थी। 1980 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर पहला चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ से आहत होकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और शिरोमणि अकाली दल में शमिल हो गए।
1985 का विधानसभा चुनाव उन्होंने अकाली दल के टिकट पर लड़ा और जीता। सुरजीत सिंह बरनाला के नेतृत्व में अकाली दल की सरकार बनी, उसमें कैप्टन मंत्री भी हुए लेकिन अगले चुनाव में उन्हें बहुत बुरी तरह का हार का सामना करना पड़ा। उन्हें महज 856 वोट ही मिले। उसके बाद उन्होंने अकाली दल से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बनाई लेकिन पंजाब की सियासत में उन्हें अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल लगने लगा, उसके बाद उन्होंने कांग्रेस में वापसी की।
2014 में अरुण जेटली को दी शिकस्त
कांग्रेस में वापसी के साथ ही राजनीति में उनका रसूख बढ़ना शुरू हुआ। कांग्रेस के वह प्रदेश अध्यक्ष हुए। 2002 में कांग्रेस को जब बहुमत मिला तो वह राज्य के मुख्यमंत्री बने। 2014 के लोकसभा के चुनाव में अमृतसर सीट पर उन्होंने बीजेपी-अकाली दल के साझा उम्मीदवार अरुण जेटली को हरा दिया।
2017 के विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस को फिर से बहुमत मिला तो उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनाया गया। इधर, उनकी पत्नी भी 2014 के चुनाव को छोड़कर 1999 से सांसद रही हैं। इस वक्त भी वह कांग्रेस से सांसद हैं। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार में वह मंत्री भी रहीं।
कैप्टन की मुश्किल क्या है?
कैप्टन पंजाब की राजनीति से अपने को दूर नहीं करना चाहते। केंद्रीय राजनीति में अगर उनकी कोई दिलचस्पी होती तो शायद विवाद इतना तूल नहीं पकड़ता। कांग्रेस की तरफ से उन्हें कई बार केंद्रीय राजनीति में आने का ऑफर दिया गया था, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया।
उनसे जुड़ा दूसरा तथ्य यह है कि वह मुख्यमंत्री ही बनना चाहते हैं। कांग्रेस में उनके मुख्यमंत्री बनने की संभावनाएं खत्म ही हो गई हैं। उन्होंने खुद ही ऐलान कर दिया है कि वह कांग्रेस में नहीं रहने वाले। अकाली दल में उनके दोबारा जाने की भी कोई संभावना इसलिए नहीं है कि वहां उनके मुख्यमंत्री बनने की कोई गुंजाइश नहीं है।
शिरोमणि अकाली दल के सेक्रेटरी जनरल सरदार बलविंदर सिंह भूंदड़ ने एनबीटी से बातचीत में खुलकर कहा- ‘हमारे मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार सुखबीर सिंह बादल हैं। अकाली दल+बीएसपी गठबंधन को बहुमत मिलने पर वह ही मुख्यमंत्री होंगे। इस फैसले में बदलाव का कोई सवाल ही नहीं।’
अमरिंदर के पास अब क्या विकल्प?
अब दो विकल्प बचते हैं। एक या तो अपनी पार्टी बनाएं या बीजेपी में जाएं? 80 साल की उम्र में नई पार्टी बनाना और उसे स्थापित करना बहुत मुश्किल काम है। अकाली दल से अलग होने पर अलग पार्टी बनाने का अनुभव भी कैप्टन के लिए बहुत अच्छा नहीं रहा है।
रही बात बीजेपी में जाने की, तो कैप्टन के खिलाफ साढ़े चार साल में एंटी इंकंबैंसी फैक्टर बहुत हावी रहा है। इसी फीडबैक के आधार पर कांग्रेस उन्हें हटाने को राजी हुई थी। बीजेपी उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर बहुत फायदे में नहीं रहने वाली। हां, किसानों के साथ संवाद का रास्ता जरूर खुल सकता है। कैप्टन भी बीजेपी के साथ जाने से पहले यह आकलन करना चाहते हैं कि क्या बीजेपी सरकार बनाने तक की स्थिति में पहुंच सकती है?
बीजेपी पिछले पांच चुनाव से अकाली दल के सहारे चुनाव लड़ती रही है। 117 सीट वाले राज्य में अकाली दल उसके लिए सिर्फ 23 सीट छोड़ता रहा है। 2012 के चुनाव में उसे इन 23 सीटों में 12 पर जीत मिली थी और 2017 में सिर्फ तीन पर। यानी कि राज्य का जो मौजूदा परिदृश्य है, उसमें कैप्टन के लिए नया रास्ता चुनना बहुत आसान नहीं है।
शाह और डोभाल से मुलाकात के मायने
कैप्टन अमरिंदर सिंह लगातार सिद्धू के पाकिस्तानी रिश्तों पर अंगुली उठाते आए हैं। उसके जरिए वह सिद्धू को पंजाब और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बता रहे हैं। पंजाब की संवेदनशीलता इसलिए ज्यादा है कि वह पाकिस्तान की सीमा से जुड़ा हुआ है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और उसके बाद एनएसए अजित डोभाल से जो मुलाकात हुई, वह इसी संदर्भ से जोड़कर देखी जा रही है।
एनएसए को कुछ दस्तावेजी सबूत देने की भी चर्चा है। पाकिस्तान और राष्ट्रीय सुरक्षा यह दो ऐसे मुद्दे हैं, जिनके जरिए कैप्टन अपने प्रतिद्वंद्वी सिद्धू के लिए भी मुश्किल खड़ी कर सकते हैं और कांग्रेस के लिए भी। लेकिन कहीं अमरिंदर का फायदा होता नहीं दिख रहा है।
कैप्टन इसलिए तो खुश हो सकते हैं कि उन्होंने अपने विरोधी का खेल बिगाड़ दिया, लेकिन अपना खेल बनने की खुशी मिलना अभी दूर की कौड़ी लग रही है। वैसे अभी चुनाव के करीब पांच महीने बाकी हैं, पंजाब की सियासत में कई नए उलटफेर भी देखने को मिल सकते हैं।