तीनों कृषि कानून विरोधी आंदोलनकारियों को समझ में आने लगा है कि वे बुरे फंस गए हैं। उन्हें समझ में आ गया है कि वे जो चाहे कर लें, लेकिन सरकार तीनों कानूनों को वापस नहीं लेने वाली है। करनाल के बसताड़ा टोल पर यातायात बाधित करने के दौरान आंदोलनकारियों ने उपद्रव किया और फिर तत्कालीन एसडीएम आयुष सिन्हा को सस्पेंड करने की मांग को लेकर लघु सचिवालय घेरा, लेकिन उन्हें केवल न्यायिक जांच से संतुष्ट होना पड़ा। अब आंदोलन के नेता चाहे जो दावा करें, लेकिन इसमें शामिल लोग मानने लगे हैं कि तीनों कृषि सुधार कानूनों में संशोधन की बात मान लेनी चाहिए थी। ऐसा न कर आंदोलन के नेताओं ने गलती की थी।
वास्तव में करनाल के एसडीएम के निलंबन की मांग को लेकर प्रयोग किया गया था, जो असफल रहा। प्रदेश सरकार यदि यह मांग मान लेती तो आंदोलनकारियों को लगता कि वे केंद्र सरकार को भी झुका देंगे। प्रदेश और केंद्र दोनों सरकारें उनकी मानिसकता से परिचित थीं। इसलिए प्रदेश सरकार ने एसडीएम के निलंबन की बात मानने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। अब आंदोलन के नेता समझौते को अपनी जीत बता रहे हैं। दिलचस्प तो यह है कि इस समझौते का श्रेय भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) के अध्यक्ष गुरनाम चढ़ूनी को उनके गुट के लोग दे रहे हैं तो राकेश टिकैत गुट के लोग समझौते के पीछे की पटकथा को सार्वजनिक करने की मांग कर रहे हैं।
हरियाणा सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के जगदीश सिंह ङिांडा चढ़ूनी पर झूठ बोलने का आरोप लगा रहे हैं और प्रमुख भूमिका अपनी बता रहे हैं तो चढ़ूनी उन्हें गंदा आदमी बता रहे हैं। इससे भी आंदोलनकारी हतोत्साहित हो रहे हैं। वैसे तो आंदोलन के नेताओं में मतभेद आरंभ में ही उभर आए थे जो दिन प्रतिदिन गहराते गए। लेकिन करनाल में सात सितंबर की महापंचायत में राकेश टिकैत के पहुंचने के बाद यह लगने लगा था कि आंदोलन के नेता शायद एकजुट हो जाएं। लेकिन न ऐसा होना था, न हुआ। वास्तव में टिकैत का करनाल महापंचायत में पहुंचना एक रणनीति थी।
टिकैत को लगा कि यदि करनाल में मुजफ्फरनगर की अपेक्षा अधिक संख्या में लोग जुटे तो चढ़ूनी उनसे अधिक शक्तिशाली प्रमाणित हो जाएंगे। इसलिए वह योगेंद्र यादव के साथ करनाल पहुंच गए, जिससे सारा श्रेय चढ़ूनी अकेले न लूट सकें। ऐसा हुआ भी, लेकिन टिकैत इसके पहले मुजफ्फरनगर में आंदोलन को पराभव की दिशा में धकेल चुके थे। मुजफ्फरनगर और करनाल-पानीपत आदि आजादी के पहले तक एक रियासत में होते थे, जिसके शासक लियाकत अली खां थे। वही लियाकत अली खां जो पाकिस्तान चले गए और वहां के पहले प्रधानमंत्री बने। उनकी 1951 में रावलपिंडी में हत्या हो गई थी।
लियाकत अली खां के पूर्वज जाट समुदाय से थे, जो बाद में मतांतरित होकर मुस्लिम बन गए थे। लियाकत अली खां और उनके साथ उनकी रियासत के मतांतरित लोगों का बड़ी संख्या में पाकिस्तान जाना जाट समुदाय के उन लोगों को पसंद नहीं आया था, जो मतांतरित न होकर हिंदू ही बने रहे। यद्यपि उनके मन में यह टीस समय के साथ खत्म हो रही थी, लेकिन सात वर्ष पहले मुस्लिम समुदाय के लोगों की दो जाट युवकों की हत्या के बाद भड़के दंगे और उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सपा सरकार द्वारा वहां जो दमनचक्र चलाया गया, उसके जख्म बहुसंख्यक समुदाय के लोगों के दिलों में फिर हरे हो गए, जो आज भी हरे ही हैं। टिकैत के समर्थन में कौन हैं, यह जानने के बाद उत्तर प्रदेश के लोग तो उन्हें तवज्जो दे ही नहीं रहे थे, हरियाणा में भी लोग अब उनके समर्थन से कटने लगे हैं।
मुजफ्फरनगर में जो भी होता है, उसका प्रभाव करनाल-पानीपत पर भी पड़ता है। यहां के जाट, राजपूत, ब्राह्मण-त्यागी, गुर्जर समुदाय के लोगों की मुजफ्फरनगर में बड़ी संख्या में रिश्तेदारियां है। यही कारण है कि जीटी रोड बेल्ट में विधानसभा हो या लोकसभा भाजपा का प्रदर्शन बेहतर रहता है। उधर, हाथरस के जाट राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम से अलीगढ़ में विश्वविद्यालय की आधारशिला रखकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसा अस्त्र चलाया कि मध्य हरियाणा का जाट समुदाय भी कथित किसान आंदोलन से विमुख होने लगा है। इसका कारण राजा महेंद्र प्रताप सिंह का केवल जाट शासक होना ही नहीं है, वह जींद के जाट-सिख राज परिवार के दामाद भी थे। जाट समुदाय के लिए वे आदरणीय हैं। पूजनीय हैं। इसके साथ ही प्रधानमंत्री अपने इसे कार्यक्रम में जींद के ही दीनबंधु छोटूराम के किसानों और देश के प्रति योगदान को रेखांकित कर जाट समुदाय को मुग्ध कर दिया है।