पंजाब में कांग्रेस पार्टी के दो विधायकों के कल भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के बाद राज्य में राजनीतिक हलचल तेज हो गई है. चुनाव के पहले इस तरह से नेताओं का पार्टी बदलना अब आम हो गया है. ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि जनता को सन्देश दिया जा सके कि हवा उस पार्टी के पक्ष में चलनी शुरू हो गयी है. और इस खेल में बीजेपी का कोई मुकाबला नहीं है.
कल कांग्रेस पार्टी के दो विधायक, फतेह सिंह बाजवा और बलविंदर सिंह लड्डी बीजेपी में शामिल हो गए. पिछले हफ्ते पंजाब के पूर्व मंत्री राणा गुरमीत सिंह ने बीजेपी का दामन थामा था. संभावना है कि दूसरे दलों के कुछ और विधायक और नेता 5 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की फिरोजपुर में होने वाली रैली में बीजेपी में शामिल हो सकते हैं. बाजवा और लड्डी के साथ पंजाब के कुछ और नेता भी कल बीजेपी में शामिल हुए. साथ ही पूर्व भारतीय क्रिकेटर दिनेश मोंगिया ने भी बीजेपी के साथ राजनीति में अपनी नई पारी की शुरुआत करने की घोषणा की. बता दें कि अभी हाल ही में एक और पूर्व भारतीय क्रिकेटर हरभजन सिंह ने क्रिकेट से सन्यास लेने और पंजाब चुनाव लड़ने की घोषणा की थी.
क्या दलबदल से बीजेपी को फायदा होगा?
चुनाव पूर्व पार्टी बदलने की एक प्रथा बन गयी है. दरअसल दलबदल से जिस पार्टी को फायदा होता है, वह यह दिखाने की कोशिश करती है कि हवा उसके पक्ष में चलने लगी है. दलबदल के कई और कारण होते हैं, जिसमें से एक प्रमुख है टिकट ना मिलना. ऐसे विधायक जिन्हें लगने लगता है कि उनका टिकट कटने वाला है, किसी अन्य दल में शामिल हो जाते हैं. कुछ नेता अपने दल या बड़े नेता से नाराज़ हो कर प्रतिशोध की भावना से दूसरे दलों में शामिल हो जाते हैं. और एक कारण होता है भविष्य की चिंता. कांग्रेस के जो तीन विधायक अभी तक बीजेपी में शामिल हो गए हैं, उन्हें लगने लगा था कि पंजाब में कांग्रेस पार्टी की हार तय है. उन्हें लगा कि बीजेपी के साथ जुड़ने से शायद उनकी किस्मत का ताला खुल जाएगा. पर क्या इस दलबदल से सच में बीजेपी को पंजाब में फायदा होगा?
कुछ ऐसा ही नज़ारा 2019 में पंजाब के पड़ोसी राज्य हरियाणा में भी दिखा था. दूसरे दलों से बड़ी संख्या में नेता और विधायक बीजेपी में शामिल हो रहे थे. ऐसा लगने लगा था कि बीजेपी की हरियाणा चुनाव में एकतरफा जीत होने वाली है. पर हुआ ठीक इसके विपरीत. बीजेपी के पास हर एक सीट पर कम से कम तीन या चार उम्मीदवार थे. दूसरे दलों से जब नेता आयात किये जाते हैं तो पार्टी के पुराने नेताओं में खलबली मच जाती है. उन्हें लगने लगता है कि वर्षों से किए गए उनकी सेवा को पार्टी अनदेखा कर रही है और उनकी जगह पार्टी में दूसरे दलों से आए नेताओं को मौका दिया जा रहा है. देखने और सुनने में काफी अच्छा लगता है कि दूसरे दलों के नेता चुनाव पूर्व बीजेपी में शामिल हो रहे हैं, पर इसकी वजह से जिन पुराने नेताओं को टिकट नहीं मिलता है वह या तो पार्टी से नाराज़ हो कर चुनाव प्रचार में शामिल नहीं होते हैं या कभी-कभी पार्टी के खिलाफ भी काम करने लगते हैं. हरियाणा में ऐसा ही हुआ. बीजेपी की सीटें कम हो गयीं और पार्टी बहुमत से 6 सीटें दूर रह गई, इस कारण बीजेपी को जेजेपी के साथ गठबंधन की सरकार बनानी पड़ी.
पंजाब की सियासी स्थिति पश्चिम बंगाल जैसी हो गई है
वहीं दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल में भी बीजेपी ने कुछ ऐसा ही किया. पर शायद बीजेपी की यह मजबूरी थी. पार्टी के पास चुनाव जीतने लायक उम्मीदवारों की कमी थी. बीजेपी का प्रदर्शन पहले की तुलना में बेहतर रहा, पर पार्टी चुनाव नहीं जीत पाई. जहां दूसरे दलों से, खासकर तृणमूल कांग्रेस के नेता बीजेपी में शामिल हो गए थे, अब वही माफ़ी मांग कर और बीजेपी को छोड़ कर वापस तृणमूल कांग्रेस में शामिल होते जा रहे हैं.
पंजाब की तुलना किसी हद तक पश्चिम बंगाल से की जा सकती है. बीजेपी के पास पर्याप्त उम्मीदवारों की कमी है. शिरोमणि अकाली दल के साथ 24 साल चले गठबंधन में बीजेपी पंजाब की 117 में से 23 सीटों तक सीमित रह गई थी. अगर बीजेपी को नए क्षेत्रों से चुनाव लड़ना है तो उसे दूसरे दलों के नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करना ही होगा. विडंबना यह है कि पंजाब एक सिख बहुल प्रदेश है और बीजेपी के पास सिख नेताओं की भारी कमी है, जिस कारण कांग्रेस या अकाली दल से सिख नेता आयात करना पड़ रहा है.
चुनाव बाद होगा ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का खेल?
मजेदार बात है कि मंगलवार को बीजेपी की पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखदेव सिंह ढिंडसा की शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) के साथ विधिवत गठबंधन की घोषणा हुई थी. चूंकि अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस पार्टी छोड़ कर अपनी पार्टी का निर्माण किया है, उम्मीद यही की जा रही थी कि कांग्रेस छोड़ कर कई नेता पंजाब लोक कांग्रेस में शामिल होंगे. पर उनका बीजेपी में शामिल होना थोड़ा अजीब लग रहा है. अमरिंदर सिंह 5 जनवरी की मोदी की सभा में शामिल होंगे, जहां से बीजेपी गठबंधन के चुनाव प्रचार की विधिवत शुरुआत होगी. ऐसा प्रतीत होने लगा है कि बीजेपी और अमरिंदर सिंह के बीच कोई गुप्त समझौता हुआ है.
अमरिंदर सिंह बीजेपी को मजबूत करने की दिशा में काम करेंगे, गठबंधन के चुनाव जीतने की स्थिति में उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाएगा और शायद बाद में पंजाब लोक कांग्रेस का बीजेपी में विलय हो जाएगा. वर्ना अमरिंदर सिंह के करीबी माने जाने वाले कांग्रेसी विधायक बीजेपी में क्यों शामिल होते, जबकि सच्चाई यही है कि बिना अमरिंदर सिंह के सहयोग के बीजेपी के लिए 2017 में जीते हुए तीन सीटों को बचाना भी कठिन दिख रहा था.
2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी का एक नारा आया था– ‘मोदी है तो मुमकिन है.’ फिर पंजाब लोक कांग्रेस का विलय बीजेपी में होना मुमकिन है. वैसे भी सितम्बर के महीने में जब अमरिंदर सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था, उस समय उनके बीजेपी में शामिल होने की चर्चा चल रही थी. शायद उस समय ही फैसला किया गया कि पंजाब में मोदी सरकार से नाराज़ किसान और सिख मतदाताओं को अमरिंदर सिंह बीजेपी से बाहर रह कर बेहतर तरीके से रिझा सकते हैं, और चुनाव बाद… मोदी है तो यह भी मुमकिन है.