राजस्थान विधानसभा के इतिहास में यह नौंवी बार है, जब बीच में ही नेता प्रतिपक्ष का पद रिक्त हो गया है. पहली, पांचवी, छठी, आठवीं, दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं विधानसभा के दौरान बीच में ही नेता प्रतिपक्ष बदला जा चुका है. सबसे अधिक छठी विधानसभा में परसराम मदेरणा, रामनारायण चौधरी और महरावल लक्ष्मण सिंह नेता प्रतिपक्ष बने थे. नेता प्रतिपक्ष बड़े मुद्दे पर सदन के भीतर सरकार को घेरने की रणनीति बनाते हैं. इसी रणनीति के तहत सभी विधायक सरकार पर हमला बोलते हैं.
नेता प्रतिपक्ष का पद महत्वपूर्ण क्यों?
राजस्थान विधानसभा में हरिदेव जोशी, भैरो सिंह शेखावत और वसुंधरा राजे नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके हैं. वहीं परसराम मदेरणा और महरावल लक्ष्मण सिंह नेता प्रतिपक्ष के बाद विधानसभा स्पीकर की कुर्सी तक पहुंचे. हाल तक नेता प्रतिपक्ष रहे गुलाब चंद कटारिया असम के राज्यपाल बनाए गए हैं. राजस्थान की सियासत में पिछले 25 साल से नेता प्रतिपक्ष का पद इसलिए और महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि यहां हरेक 5 साल बाद सरकार बदल जाती है.
नेता प्रतिपक्ष के रेस में कौन-कौन?
बीजेपी हाईकमान भले नेता प्रतिपक्ष का चुनाव कूलिंग पीरियड में डाल रखा हो, लेकिन इसको लेकर लामबंदी तेज हो गई है. पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे नेता प्रतिपक्ष की रेस में सबसे आगे है. 70 में से करीब 40 विधायक वसुंधरा के करीबी माने जाते हैं. वसुंधरा के अलावा राजपूत समुदाय से आने वाले राजेंद्र राठौर, जाट समुदाय के सतीश पूनिया और ब्राह्मण समुदाय के अरुण चतुर्वेदी भी रेस में शामिल हैं. राजेंद्र राठौर वर्तमान में उप नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में हैं.
चुनाव जीतने के लिए बीजेपी की रणनीति क्या है?
5 साल बाद राजस्थान की सत्ता में वापसी के लिए बीजेपी माइक्रो लेवल पर रणनीति तैयार कर रही है. इनमें जातिगत समीकरण, मुद्दा तैयार करना, प्रचार-प्रसार और संगठन की मजबूती शामिल है. आइए इसे विस्तार से जानते हैं.
1. जाट और राजपूत समीकरण का सहारा- राजस्थान में सत्ता वापसी के लिए बीजेपी की सबसे बड़ी रणनीति जाट और राजपूत समुदाय को मजबूती से जोड़ना है. केंद्र से लेकर राज्य तक इस समीकरण को मजबूत करने में पार्टी जुटी है. केंद्र में राजपूत समुदाय के गजेंद्र सिंह शेखावत और जाट समुदाय के कैलाश चौधरी को मंत्री बनाया गया है, तो राजस्थान में भी इसी समीकरण के सहारे पार्टी आगे बढ़ रही है. जाट नेता सतीश पूनिया वर्तमान में प्रदेश अध्यक्ष हैं. ऐसे में माना जा रहा है कि नेता प्रतिपक्ष राजपूत समुदाय से हो सकता है. राजस्थान में 12 फीसदी जाट और 9 फीसदी राजपूत वोटर्स हैं. यानी दोनों को मिला दिया जाए तो 20 फीसदी से ज्यादा वोट को बीजेपी साधने की कोशिश में है.
2. बदलाव परंपरा पर भरोसा, इसलिए रिस्क नहीं- राजस्थान में पिछले 25 सालों से हर 5 साल बाद सरकार बदल जाती है. बीजेपी भी इस बदलवा परंपरा का खामियाजा भुगत चुकी है. 2018 में राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनी, जो खींचातानी के बावजूद अब तक चल रही है. कांग्रेस भी आपसी गुटबाजी में उलझी है. रोजगार देने को लेकर भी सरकार बैकफुट पर है. पेपरलीक का मुद्दा भी सरकार के लिए जी का जंजाल बना हुआ है. इन सब वजहों से कई इलाकों में एंटी इनकंबेंसी भी जोरों पर है. ऐसे में बीजेपी हाईकमान को बदलाव परंपरा पर भरोसा है, इसलिए ज्यादा रिस्क नहीं लेना चाह रही है. पार्टी सिर्फ उन मुद्दों का जिक्र कर रही है, जिसको लेकर कांग्रेस 2018 में बड़े वादे कर चुकी है.
3. पीएम मोदी चेहरा, लोकल लीडरशिप पर कन्फ्यूजन- 2018 में बीजेपी वसुंधरा राजे सिंधिया के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ी. इसका नुकसान पार्टी को उठाना पड़ा. बीजेपी 160 से 70 सीटों पर आ गई. वसुंधरा के गढ़ पूर्वी राजस्थान में ही बीजेपी को करारी हार मिली. बीजेपी इस बार यह गलती नहीं दोहराना चाहती है. पार्टी लोकल लीडरशिप को लेकर कन्फ्यूजन की स्थिति रखना चाहती है, जिससे आने वाले वक्त में कोई भी नेता सीएम का बड़ा दावेदार न हो जाए. अगर ऐसा हुआ तो अन्य नेताओं और उनकी जातियों के वोट में बड़ा सेंध लग जाएगा. बीजेपी पीएम मोदी के चेहरे पर राजस्थान की लड़ाई लड़ने की तैयारी में है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले 4 महीने में 4 रैली कर चुके हैं. ये सभी रैली उन इलाकों में की गई है, जहां बीजेपी कमजोर है.
4. पुराने नेताओं की घर वापसी भी सहारा- वसुंधरा राजे और पार्टी के आपसी गुटबाजी से नाराज होकर गए नेताओं की भी घरवापसी की तैयारी बीजेपी कर रही है. प्रदेश से लेकर जिला स्तर पर ऐसा नेताओं की सूची बनाई जा रही है.बीजेपी घरवापसी करने वाले नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी भी देगी, जिससे जीत में कोई कसर न रह जाए. बीजेपी ने नेताओं की घरवापसी के लिए केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल के नेतृत्व में एक जॉइनिंग कमेटी का भी गठन किया है. राजस्थान में जीत की रणनीति तैयार करने के लिए बीजेपी ने विधानसभा सीटों को भी कैटेगरी के हिसाब से बांटा है. रिपोर्ट के मुताबिक 30-35 सीटें ऐसी है, जहां नेताओं के जाने से पार्टी को हार मिली थी.
वसुंधरा राजे अभी नेता प्रतिपक्ष पद के लिए सबसे मजबूत दावेदार हैं. अगर उनके नाम की घोषणा की तो सीधा संदेश जाएगा कि वसुंधरा ही पार्टी का चेहरा है. इसके बाद अलग-थलग पड़े वसुंधरा गुट के नेता फिर सक्रिय हो जाएंगे.पिछले कुछ सालों में पार्टी ने वसुंधरा गुट के नेताओं को बाहर का रास्ता भी दिखाया था. वे नेता सब भी वापसी की कोशिश करेंगे. टिकट बंटवारे में भी वसुंधरा का हस्तक्षेप बढ़ेगा. ऐसे में पार्टी के भीतर वसुंधरा विरोधी खेमा भी गोलबंद हो जाएगा. पार्टी को इसका सीधे तौर पर नुकसान होगा. कई जातियों के वोटर्स भी बीजेपी से कन्नी काट सकते हैं. इनमें जाट और गुर्जर महत्वपूर्ण हैं.
राजस्थान बीजेपी में अभी 40 विधायक ऐसे हैं, जो सीधे तौर पर वसुंधरा राजे के समर्थक माने जाते हैं. चुनावी साल में वसुंधरा को साइड लाइन करना भी बीजेपी को भारी पड़ सकता है.2009 में वसुंधरा ने दिल्ली में विधायकों का परेड करवा दिया था. उस वक्त हाईकमान की खूब किरकिरी हुई थी. वसुंधरा 2 बार राज्य की मुख्यमंत्री रही हैं. ऐसे में उनकी पकड़ पूरे राजस्थान में है. बीजेपी के पास वर्तमान में ऐसा कोई भी चेहरा नहीं है. इसलिए वसुंधरा को साइड लाइन कर बीजेपी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है. वैसे भी चुनावी साल में बजट सत्र के बाद सिर्फ मॉनसून सत्र होना है. ऐसे में बीजेपी नेता प्रतिपक्ष का नाम आगे बढ़ाकर कलह नहीं चाहती है.
वसुंधरा कितनी मजबूत?
4 साल से सियासी वनवास झेल रही वसुंधरा राजे ने भी चुनावी साल में सक्रियता बढ़ा दी है. वसुंधरा अपने धुर-विरोधियों को साधने की रणनीति पर काम कर रही है. इसी कड़ी में उन्होंने राजस्थान जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील से मुलाकात की है. पूर्वी राजस्थान में भी वसुंधरा लगातार एक्टिव हैं. 2018 में इन इलाकों में सचिन पायलट ने भारी सेंध लगाई थी और भरतपुर, दौसा, करौली, सवाईमाधोपुर में बीजेपी का खाता नहीं खुला था. पूर्वी राजस्थान के 46 सीटों में से बीजेपी को सिर्फ 7 पर जीत मिली थी. इन इलाकों में वसुंधरा की सक्रियता से बीजेपी की टेंशन बढ़ गई है. वसुंधरा अगर यहां फिर से जमीन बनाने में कामयाब हो जाती है तो उन्हें दूर करना हाईकमान के लिए आसान नहीं होगा.