इंटरनेशनल फाउंडेशन फॉर सेस्टेनेबल डेवलेपमेंट इन अफ्रीकी एशिया के संस्थापक व एचएयू के कृषि महाविद्यालय के पूर्व डीन डॉ. आरके बहल जेनेटिक्स के विशेषज्ञ हैं। मूलत: राजस्थान के श्रीगंगानगर निवासी डॉ. आरके बहल जर्मनी, अमेरिका, जापान समेत अब तक 23 देशों के कृषि विशेषज्ञों के साथ विभिन्न सेमिनार में शामिल हो चुके हैं।
उन्होंने बताया कि बढ़ती आबादी व खाद्य सुरक्षा में स्थिरता के लिए प्रतिवर्ष अनाजों का 3.76 प्रतिशत उत्पादन बढ़ाना पड़ रहा है। इसके लिए हर फसल में अधिक से अधिक उपज देने वाली प्रजातियों की खोज की जा रही है। जाहिर सी बात है कि अगर उपज बढ़ेगा तो उस वेराइटी की रोगी प्रतिरोधक क्षमता घटेगी।
उदाहरण के तौर पर देखें तो गेहूं की सी-591 और सी-306 में रोग प्रतिरोधक क्षमता तो है, लेकिन उपज कम होने के कारण कम किसान ही इनकी बिजाई करते हैं। इसी तरह धान के खेत में पानी की खपत अधिक होती है। इस वजह से मिथेन गैस भी अधिक निकलती है। इसलिए धान की रोपाई की जगह सीधी बिजाई की विधि अधिक उपयुक्त है। ऐसा करने पर फसल में एक तिहाई पानी की खपत कम होगी। इसके अलावा मिथेन का उत्सर्जन भी घटेगा। इसी प्रकार के कई अन्य उपाय हैं, जिन्हें अपनाना होगा।
प्राकृतिक खेती तीसरे साल होगी फायदेमंद
डॉ. आरके बहल ने कहा कि प्राकृतिक खेती को एक साथ सारे किसानों से शुरू कराना खतरनाक हो सकता है। दरअसल, यह विधि जीवाश्म कार्बन की उपलब्धता पर निर्भर है। अगर किसी खेत में लगातार तीन साल तक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं होगा, तब जाकर वहां पर्याप्त मात्रा में जीवाश्म कार्बन एकत्रित होगा। इसके बाद चौथे साल की फसल का उत्पादन अच्छा होगा। हालांकि खेती पर निर्भरता इतनी अधिक है कि चार साल तक किसान इंतजार नहीं कर सकता। इसलिए बेहतर है कि इसे पहले छोटे स्तर पर शुरू कराया जाए। धीरे-धीरे इसका क्षेत्रफल बढ़ाया जाए। खेती की पुरानी विधियां पर्यावरण के अनुकूल थीं।