किसानो का तीन कृषि कानून विरोधी आंदोलन एवं राजनीतिक अवसरवाद।

Parmod Kumar

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भारतीय प्रजातंत्र में किसान राजनीति के केंद्र में रहा है। समय-समय पर किसान अपनी ताकत का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से आभास भी करवाता रहा है। परंतु विडंबना यह रही है कि राजनीति को बदलने वाला यह वर्ग अपने आप को नहीं बदल पाया। भूमंडलीकरण के दौर में जब दुनिया के लगभग सभी देशों के बाजार एक-दूसरे के लिए खोल दिए गए तो कृषि को छोड़कर लगभग सभी आर्थिक क्षेत्रों में इसका प्रभाव महसूस किया गया। कई क्षेत्रों में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई। आर्थिक सुधारों की इस कड़ी में कृषि सुधारों की प्रक्रिया भी वर्तमान सदी के प्रारंभिक वर्षो में ही शुरू हो गई थी। इसके मूल में कृषि को आधुनिक अर्थव्यवस्था में स्थापित करते हुए किसान को अर्थव्यवस्था के विकास में एक सक्रिय सहयोगी बनाना था। इसके लिए कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए-दो की सरकार के कार्यकाल के प्रारंभिक वर्षो में तत्कालीन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रियों एवं प्रदेश के मुख्यमंत्रियों का एक समूह बनाया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य किसान एवं कृषि को यथास्थितिवाद से बाहर निकाल कर विभिन्न सुधारों के माध्यम से उसे अर्थव्यवस्था के एक मजबूत स्तंभ के रूप में स्थापित करना था। इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की अध्यक्षता में एक वìकग ग्रुप बनाया गया, जिसे कृषि उत्पादन को गुणवत्ता के साथ बढ़ाने एवं उसकी बिक्री के लिए आधुनिक बाजार की संभावनाओं का पता लगाना था। इस समूह की संरचना की विशेष बात यह थी कि इसमें विभिन्न क्षेत्रों, पार्टयिों एवं विचारधाराओं का समावेश था। जहां अध्यक्ष के रूप में हरियाणा के कांग्रेस के बड़े नेता एवं किसान पृष्ठभूमि से भूपेंद्र सिंह हुड्डा थे, वहीं सरदार प्रकाश सिंह बादल भी थे, जो स्वयं एक बड़े किसान नेता के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों की राजनीति का एक बड़ा चेहरा रहे हैं। इसमें वामपंथी विचारधारा के ध्वजवाहक बुद्धदेव भट्टाचार्य भी थे। इसी तरह बिहार के मुख्यमंत्री भी अपनी विचारधारा के साथ इसमें सम्मिलित थे। मुख्यमंत्रियों के उस समूह ने कृषि विशेषज्ञों एवं आमजन से प्राप्त हुए सुझावों के आधार पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जो आगे चलकर वर्तमान तीनों कृषि कानूनों का मुख्य आधार बनी।